Friday 11 March 2016

बूढा चाँद
          
मुझे कोई प्यार नहीं करता।.....मैं अच्छी नहीं हूँ।....मैं हर बात भूल जाती हूँ।....मैं गाली देती हूँ।
"कहाँ से सीखा ?"गाली देना,....बूढे ने पूछा....
"तुम बहुत अच्छी हो।"
उससे मेरी दोस्ती हो गई।उसने मुझे अपना 'गाली गुरू' बना लिया। उसने पूछा ,तूलिका कोई तुम्हें प्यार करे तो क्या तुम उसे गाली दोगी?
अगर कोई मुझे सचमुच प्यार करेगा तो भी मैं उसे गाली दूँगी। जिसे प्यार करते हो उसे गाली नहीं दे सकते तो किसे दे सकते हैं?
बूढा तूलिका की यह बात सुन सोच में पड गया......।
तूलिका जोर से हँस दी।बूढे ने तूलिका के गाल के पास दोनों हाथों की अंजलि बनायी। तूलिका बोली क्या कर रहे हो।बूढा बोला, "तुम्हारे चेहरे से हरसिंगार झर रहे हैं ,उन्हें बटोर रहा हूँ।"
क्या फूल झड रहे हैं? कहाँ....
"देखो तो सही यहाँ मेरी अंजलि में।"
कहाँ?
"यहाँ"
बूढे ने कहा,"तुमने हरसिंगार देखा है?"
नहीं।
"जब तुमने मुझे ढेर सारी गालियाँ सुनायीं  मैंने तुम्हें अपना 'गाली गुरू'बना लिया।"......
...
तुम मेरे फूल गुरू' बनोगे?
तुम्हें मालूम है मैं कभी झूठ नहीं बोलती थी।हमेशा सच बोलती थी याद नहीं आता कब झूठ बोलना शुरू किया।....
                                                         बूढा चाँद
                                   भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन
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 "फिक्शन में कथा में डिटेल्स का बहुत महत्व होता है, और सिर्फ रूपकों (मेटार्फरस) या फंतासी में कथा लिखने की क्षमता तो फ्रांज काफ्का और होरखे लुई बोरखेस जैसे विरले रचनाकारों में ही होती है, सो कोलकाता में, और एक विशेष सामाजिक परिवेश में अपना जीवन व्यतीत करने वाली शर्मिला के पास जो जीवन-अनुभव हैं, उन्हीं की बारीकी से जाँच-परख करते हुए, उसने अपने पात्र रचे हैं, और उनके जीवन और सोच से संबंधित ब्यौंरों को भी अंकुरित भाव से रचा बसाया है पर, इसे  'वास्तविक जीवन का वास्तविकतापूर्ण आख्यान' मानने की भूल हम नहीं कर सकते हैं। दरअसल शर्मिला के लेखन की विशेषता यह है कि वह वास्तविकता को भेदने की क्षमता रखती है, और जो 'मनडेन' है, रोजमर्रा का कोई साधारण प्रसंग या विवरण है, उसके सहारे वह बात को दूर तलक ले जाती है: कुछ इसी भाव से कि 'बात निकली है तो दूर तलक जाएगी।' उसका एकमात्र उपन्यास 'शादी से पेशतर' हो या चर्चित और मंचित कहानी 'बूढा चाँद' हो, हम इसी बात के साक्ष्य उनमें जगह जगह पा सकते हैं। प्राय:अचूक बाहरी डिटेल्स और पात्रों में अंर्तमन के डिटेल्स मिलकर उसके कथा संसार को अर्थ-प्रवण बनाते हैं।
                                                         --प्रयाग शुक्ल
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'बूढा चांद' कहानी में कहानीकार ने एक आठ नौ वर्षीया लडकी के मानस को पढा है, जो गालियां देकर शाब्दिक हिंसा करती है।
गालियां देना उसे अच्छा लगता है। गालियां यानी रामबाण औषधि यानी उचाट मन को बहलाने और गाढी नींद लेने का प्रयास। तूलिका इसलिए गालियां बकती है क्योंकि उसे कोई प्यार नहीं करता। उसे विरासत में मिला है, आतंक, असुरक्षा, अकेलापन और गालियों का अम्बार। संवाद पुल है, संबंध, आत्मीयता, और संवेदना के प्रसार का। इस पुल को बनाए बिना व्यक्ति अपने भीतर की मनुष्यता को कभी पा नहीं सकता।
व्यवस्था के जड अनुशासन, परंपरा की कठोर जकडन और सभ्य शालीन 'दिखावे' की कृत्रिम  कवायत से संत्रस्त तुलिका के भीतर की तमाम उथल -पुथल विराम और शांति के दो पल पाना चाहती है ताकि अपनी ऊर्जा और चेतना को खंगालकर वह अपने सपनों को ऊर्ध्व रुप दे सके। उसकी पहली प्राथमिकता अपने को थहाना है। फिर परिवेश को गुनना और, विडम्बनाओं को चिन्हना है। किन्हीं बेहतर विकल्पों की तलाश में जुटना जैसी प्राथमिकताएं उसे निरंतर सक्रिय और चिंतक बनाती है। उसके सामने रोज एक चुनौती आकर खडी होती है। अपनी ही सीमाओं का अतिक्रमण कर आत्मविस्तार करना। जाहिर है सर्जनात्मकता उसके जीवन का मूलमंत्र बन जाती है। सृजन तो कलाओं का आधार बिन्दु ही नहीं, ज्ञान विज्ञान के तमाम अनुशासनों का प्रेरक बिंदु भी है । तुलिका के भीतर की सर्जनात्मकता इस 'बूढे चांद' के साहचर्य में ही संभव है। जिसका व्यक्तित्व अनुभव की गठरी में से निकल कर शीतल छाया ही नहीं देता जिसके सहारे विश्रांति और कर्मण्यता के मीठे अंतर्सम्बंध के मर्म को समझा जा सकता है।
                            -----डा० संदीप रणभिरकर
                              

Monday 29 February 2016

                 महानगर और मॉल#                                    शनिवार और रविवार की शाम अगर आप किसी परिचित या मित्र या रिश्तेदार के यहाँ आमंत्रित नहीं हैं, और ना ही आपने किसी को आमंत्रित किया है, तो अपनी शाम गुजारने के लिए शायद आप या तो थोडी देर मंदिर हो लेंगे या पार्क का चक्कर लगा लेंगे या होटल चले जाएंगे। हो सकता है किसी सांस्कृतिक कार्यक्रम में भी चले जाएं, पर संभावना ज्यादा महानगर में 'मॉल' में जाने की ही होती है।
सो महानगर का बाशिंदा अपने खालीपन और अकेलेपन को कम करने के लिए मॉल की शरण लेता है। वहाँ जाने की तैयारी अलग तरह से होती है। कपडे मेकअप और भारी जेब ।सभी में तैयारी नजर आती है। मॉल इस तरह' गिरफ्त' में लेता है कि अनावश्यक खरीदारी होती ही है।
माॉल से लौटने के बाद चेहरे पर जो खुशी दिखाई पडती है वह भ्रामक होती है। विषमता और असंतोष को बढाने वाली ।
मानव जीवन को स्वस्थ और गतिशील क्या मॉल संस्कृति बना सकती है ?
मानव जीवन में यह कैसी विकृतियाँ पैदा कर रही है यह वहाँ जानेवाला क्या पहचानता है ?
महानगर कहाँ ले जाएगा ?